Monday, April 4, 2011

यहीं वही..


कितनी बातें
यहीं वही
फिर
कुछ तो सही ..
बिखरी सी
सिरहाने के किसी
कोने से सिमटी
नींद से
अलसाई हुई
फिर
ऐसे ही
कितनी बातें
यहीं वही
फिर
कुछ तो सही ..
वक्त से बेखबर
चलीं
पहरों से बेख़ौफ़
निकल
कुछ बातें तुम्हारी
और मेरी
यहीं वहीँ
कितनी बातें
यहीं वही
फिर
कुछ तो सही ..
सपनो से परे
तुम्हारे सकल
रूप में
कभी शर्माती
गुदगुदाती
हंसी भर सही
ऐसी ही कुछ बातें
यहीं वहीँ
और पा
लेने की चाह
बस थोड़ी सी
मुठी में
छिपा लेने जैसी
मेरी और तुम्हारी
ऐसी ही कुछ बातें
यहीं वहीँ
कभी रात के पल
सूखे से
मुरझाये पत्तो
पर
एक मुस्कान
तुम्हारी
बदल देती उन्हें
सुबह की भींगी
ओस में
ऐसी ही कुछ
हमारी
कितनी बातें
यहीं वही

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