दद्दू
कुछ भी नहीं भूला हूँ...तुम्हे भी और खुद को भी सब कुछ याद हैं बिलकुल वैसे ही जैसे की वो था कभी..
Monday, April 4, 2011
यहीं वही..
कितनी बातें
यहीं वही
फिर
कुछ तो सही ..
बिखरी सी
सिरहाने के किसी
कोने से सिमटी
नींद से
अलसाई हुई
फिर
ऐसे ही
कितनी बातें
यहीं वही
फिर
कुछ तो सही ..
वक्त से बेखबर
चलीं
पहरों से बेख़ौफ़
निकल
कुछ बातें तुम्हारी
और मेरी
यहीं वहीँ
कितनी बातें
यहीं वही
फिर
कुछ तो सही ..
सपनो से परे
तुम्हारे सकल
रूप में
कभी शर्माती
गुदगुदाती
हंसी भर सही
ऐसी ही कुछ बातें
यहीं वहीँ
और पा
लेने की चाह
बस थोड़ी सी
मुठी में
छिपा लेने जैसी
मेरी और तुम्हारी
ऐसी ही कुछ बातें
यहीं वहीँ
कभी रात के पल
सूखे से
मुरझाये पत्तो
पर
एक मुस्कान
तुम्हारी
बदल देती उन्हें
सुबह की भींगी
ओस में
ऐसी ही कुछ
हमारी
कितनी बातें
यहीं वही
Friday, March 11, 2011
शांत मौत..
लेकिन यह मानव जीवन है:
युद्ध, कर्म
निराशा, चिंता,
कल्पना, संघर्ष,
इन सबसे दूर है और समीप भी ,
सभी मानव
अपने आप में यह अच्छा है
कि वे अभी भी हवा में
सूक्ष्म भोजन कर रहे हैं
और हमें अस्तित्व लग रहा है
शायद दिखाने के लिए कि
शांत मौत कैसे हो सकती है.
युद्ध, कर्म
निराशा, चिंता,
कल्पना, संघर्ष,
इन सबसे दूर है और समीप भी ,
सभी मानव
अपने आप में यह अच्छा है
कि वे अभी भी हवा में
सूक्ष्म भोजन कर रहे हैं
और हमें अस्तित्व लग रहा है
शायद दिखाने के लिए कि
शांत मौत कैसे हो सकती है.
Tuesday, March 1, 2011
जिंदगी या सिगरेट...
कुछ समझ ना आया
किसे चाहू
ये जिंदगी या सिगरेट
हर पल में सिमटती हुई
हर सांस पर
ख़त्म सी होती हुई
दोनों..
छोड़ जाती हैं
कुछ यादें और ढेर सा गहरा धुआं
नजर आती हैं
बस भूली और
धुंधली सी शक्ले...
किसे चाहू
ये जिंदगी या सिगरेट
हर पल में सिमटती हुई
हर सांस पर
ख़त्म सी होती हुई
दोनों..
छोड़ जाती हैं
कुछ यादें और ढेर सा गहरा धुआं
नजर आती हैं
बस भूली और
धुंधली सी शक्ले...
Sunday, February 13, 2011
उपयोग...
हारी हुई जिंदगी......
एक मुरझाया सा प्रतिबिम्ब
उखड़ी सी छाया
सब दिखतें हैं अपनी ही आखों में
मैं अब क्रांति के गीत नहीं गा सकता
दंतेवाडा का संघर्ष
अब मेरा लक्ष्य नहीं
चढ़ना हैं मुझे अब
भागती भीड़ भरी मेट्रो में
नहीं करना हैं संबोधन
भय से डूबी हुई आखों का
सुनना हैं एक बंद कमरें में
किसी परजीवी का सिधांत
जो रक्त चूषक हैं सर्वहारा का
पेट की धधकती अग्नि
और समाज की मान्यताओ ने
ला पटका हैं
इस नवक्रांति के चरणों में
इश्वर के एक एक अंश के लिए
मैं तत्पर हूँ अपने हर सिधांत
की आहुति देने को
अब मुद्रा का संगीत मेरे जीवन का रस हैं..
मैं शुद्ध सामाजिक हो गया हूँ
एक उच्चवर्गीय ज्ञानशील क्रन्तिकारी
अंततः
मैं उपयोगी सिद्ध हो गया हूँ..
एक मुरझाया सा प्रतिबिम्ब
उखड़ी सी छाया
सब दिखतें हैं अपनी ही आखों में
मैं अब क्रांति के गीत नहीं गा सकता
दंतेवाडा का संघर्ष
अब मेरा लक्ष्य नहीं
चढ़ना हैं मुझे अब
भागती भीड़ भरी मेट्रो में
नहीं करना हैं संबोधन
भय से डूबी हुई आखों का
सुनना हैं एक बंद कमरें में
किसी परजीवी का सिधांत
जो रक्त चूषक हैं सर्वहारा का
पेट की धधकती अग्नि
और समाज की मान्यताओ ने
ला पटका हैं
इस नवक्रांति के चरणों में
इश्वर के एक एक अंश के लिए
मैं तत्पर हूँ अपने हर सिधांत
की आहुति देने को
अब मुद्रा का संगीत मेरे जीवन का रस हैं..
मैं शुद्ध सामाजिक हो गया हूँ
एक उच्चवर्गीय ज्ञानशील क्रन्तिकारी
अंततः
मैं उपयोगी सिद्ध हो गया हूँ..
Saturday, January 29, 2011
कुछ तो ..
कुछ तो होगा जो खोया हैं मैने.....
शायद वही दिन .....
जिसे मैं भूल आया उन्ही गलियों में
जब वो कोयल की कूक
और हवा की सरसराहट
कानो में संगीत घोल देती थी
मैं अब भी बेहोशी में वो दिन
तलाशता हूँ
होश में हू तो तुम्हे ढूढ़ता हूँ
अब शायद कुछ भी नही हैं
ना मैं
ना तुम और ना कोयल की कूक
और वो दिन
कुछ भी तो नही बचा मेरे पास
सब तो खो गया कहीं....
शायद वही दिन .....
जिसे मैं भूल आया उन्ही गलियों में
जब वो कोयल की कूक
और हवा की सरसराहट
कानो में संगीत घोल देती थी
मैं अब भी बेहोशी में वो दिन
तलाशता हूँ
होश में हू तो तुम्हे ढूढ़ता हूँ
अब शायद कुछ भी नही हैं
ना मैं
ना तुम और ना कोयल की कूक
और वो दिन
कुछ भी तो नही बचा मेरे पास
सब तो खो गया कहीं....
Thursday, January 20, 2011
नया बहाना..
कुछ भी नहीं भूला हूँ...
तुम्हे भी और
खुद को भी
सब कुछ याद हैं
बिलकुल वैसे ही
जैसे की वो था कभी..
क्या वाकई में कुछ भूलतें हैं
बस एक बहाना बनाते हैं
जैसे की नींद आने का
फिर आखें मुद्ने का
और सो जाने का ..
फिर कहते हैं की
भूल गया हूँ
सब कुछ
खुद को भी
और तुम को भी
ना जाने कैसे कैसे बहाने
सिर्फ भूलने को...
या याद करने का एक
नया बहाना..
Wednesday, January 19, 2011
बारिश....
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