हारी हुई जिंदगी......
एक मुरझाया सा प्रतिबिम्ब
उखड़ी सी छाया
सब दिखतें हैं अपनी ही आखों में
मैं अब क्रांति के गीत नहीं गा सकता
दंतेवाडा का संघर्ष
अब मेरा लक्ष्य नहीं
चढ़ना हैं मुझे अब
भागती भीड़ भरी मेट्रो में
नहीं करना हैं संबोधन
भय से डूबी हुई आखों का
सुनना हैं एक बंद कमरें में
किसी परजीवी का सिधांत
जो रक्त चूषक हैं सर्वहारा का
पेट की धधकती अग्नि
और समाज की मान्यताओ ने
ला पटका हैं
इस नवक्रांति के चरणों में
इश्वर के एक एक अंश के लिए
मैं तत्पर हूँ अपने हर सिधांत
की आहुति देने को
अब मुद्रा का संगीत मेरे जीवन का रस हैं..
मैं शुद्ध सामाजिक हो गया हूँ
एक उच्चवर्गीय ज्ञानशील क्रन्तिकारी
अंततः
मैं उपयोगी सिद्ध हो गया हूँ..
आज के छद्म क्रन्तिकारी.. जनसेवक.. पर गहरा कटाक्ष करती कविता बढ़िया बनी है.. आप अच्छा लिखते हैं.. बधाई और शुभकामना
ReplyDeleteधन्यवाद अरुण जी
ReplyDeleteआशा करता हूँ की आप का मार्गदर्शन हमेशा बना रहे ..